Chandrabali Pandey
Quick Facts
Biography
चंद्रबली पांडेय (संवत् १९६१ विक्रमी - संवत् २०१५) हिन्दी साहित्यकार तथा विद्वान थे। उन्होने हिंदी भाषा और साहित्य के संरक्षण, संवर्धन और उन्नयन में अपने जीवन की आहुति दे दी। वे नागरी प्रचारिणी सभा के सभापति रहे तथा दक्षिण भारत में हिन्दी का प्रचार-प्रसार किया। उन्होने हिन्दी को भारत की राष्ट्रभाषा का दर्जा प्रदान कराने में ऐतिहासिक भूमिका निभायी।
परिचय
चंद्रबली पांडेय जी का जन्म उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले के सठियाँव के नासिरुद्दीनपुर नामक गाँव में संवत् १९६१ वि. में हुआ था। ये साधारण परिवार के सरयूपारीण ब्राह्मण थे। इनके पिता गाँव में खेती का काम करते थे। इनको प्रारंभिक शिक्षा गाँव में ही मिली थी। काशी हिंदू विश्वविद्यालय से इन्होंने हिंदी से एम॰ए॰ किया था। आजीवन नैष्ठिक ब्रह्मचारी रहे। अपनी व्यक्तिगत सुख, सुविधा और किसी प्रकार की स्वकीय आवश्यकता के लिए ये कभी यत्नवान् नहीं हुए। अभाव, कष्ट और कठिनाइयों को ये नगण्य समझते रहे। इनके जीवन का एकमात्र लक्ष्य साहित्यसाधना थी। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के शिष्यों में इनका मूर्धन्य स्थान था। गुरुवर्य का प्रगाढ़ स्नेह इन्हें प्राप्त था। अपने पिता का यही नाम होने के कारण आचार्य शुक्ल इन्हें 'शाह साहब' कहा करते थे। ऐसे योग्य शिष्य की प्राप्ति का शुक्ल जी को गर्व था।
ये उर्दू, फारसी और अरबी के विद्वान् थे। अंग्रेजी, संस्कृत और प्राकृत भाषाओं के भी ये अच्छे पंडित थे। इनके स्वभाव में सरलता और अक्खड़पन का अद्भुत मेल था। निर्भीकता और सत्यप्रेम इनके निसर्गसिद्ध गुण थे। इन्होंने जीवन में कभी पराजय स्वीकार नहीं की। हिंदी भाषा और साहित्य के संरक्षण, संवर्धन और उन्नयन में अपने जीवन की आहुति देनेवाले इस साहित्य सेनानी का देहावसान काशीस्थ रामकृष्ण सेवाश्रम में संवत् २०१५ में हो गया।
इनके निबंधों से पता चलता है कि सूफी साहित्य के ये अप्रतिम विद्वान् थे। 'तसब्बुफ अथवा सूफीमत' नामक इनका ग्रंथ इनकी एवद्विषयक विद्वत्ता का पुष्ट प्रमाण है। इनकी साहित्यनिष्ठा और प्रगाढ़ पांडित्य देखकर हिंदी साहित्य सम्मेलन ने एक बार इन्हें अपना सभापति चुना था। काशी नागरीप्रचारिणी सभा के भी ये सभापति रहे। सभा से प्रकाशित होनेवाली 'हिंदी' नामक पत्रिका के ये संपादक थे। सभा से जो शिष्टमंडल दक्षिण भारत में हिंदीप्रचार के लिए गया था, पांडेय जी उसके प्रमुख सदस्य थे। सन् १९८४ में अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन का जो विशेषाधिवेशन हैदराबाद में हुआ था, जो उसके सभापति थे।
उस समय कतिपय राजनीतिज्ञ हिंदी के स्थान पर 'हिंदुस्तानी' नाम से एक नई भाषा को प्रतिष्ठित करने का अथक प्रयास कर रहे थे, जो प्रकारांतर से उर्दू थी। उसके विरोध में पांडेय जी ने अपनी दृढ़ता, अटूट लगन, निर्भीकता और प्रगाढ़ पांडित्य से राजनीतिज्ञों की कूटबुद्धि को हतप्रभ कर दिया था। पांडेय जी को साहित्य विषयक शोधकार्य में विशेष रस मिलता था। उनके छोटे से छोटे निबंध में भी उनकी शोधदृष्टि स्पष्टत: देखी जा सकती है।
कृतियाँ
पांडेय जी के स्वरचित ग्रंथों की संख्या तो अधिक है, किंतु जो कुछ भी उन्होंने लिखा है वह अत्यत महत्वपूर्ण है। इनकी छोटी बड़ी सभी कृतियों की संख्या ३४ के लगभग है, जिनमें से तीन अँगरेजी से रचित हैं। कालिदास, केशवदास, तुलसीदास, राष्ट्रभाषा पर विचार, हिंदी कवि चर्चा, शूद्रक और हिंदी गद्य का निर्माण इनके प्रमुख ग्रंथ हैं। 'केशवदास' और 'कालिदास' नामक इनकी कृतियों पर इन्हें क्रमश: राजकीय पुरस्कार प्राप्त हुए थे। ‘तसव्वुफ अथवा सूफीमत’ उनकी प्रसिद्ध रचना है। राष्ट्रभाषा के संग्राम में 1932 से लेकर 1949 तक हिन्दी-अंग्रेजी और उर्दू में लगभग दो दर्जन पैम्पलेटों की रचना की। प्रकांड भाषाशास्त्री डॉ॰ सुनीतिकुमार चटर्जी ने एक बार कहा था 'पांडेय जी के एक एक पैंफ्लेट भी डॉक्टरेट के लिए पर्याप्त हैं।'
पाण्डेजी ने अपने समय के हिन्दू-उर्दू विवाद पर तर्कसम्मत ढंग से अपने लेखों और आलेखों में निरन्तर लिखा। उनके प्रमुख लेख हैं: "उर्दू का रहस्य", "उर्दू की जुबान", "उर्दू की हकीकत क्या है", "एकता", "कचहरी की भाषा और लिपि", "कालिदास", "कुरआन में हिन्दी", "केशवदास", "तसव्वुफ अथवा सूफी मत", "तुलसी की जीवनभूमि", "नागरी का अभिशाप", "नागरी ही क्यों", "प्रच्छालन या प्रवंचना", "बिहार में हिन्दुस्तानी", "भाषा का प्रश्न", "मुगल बादशाहों की हिन्दी", "मौलाना अबुल कलाम की हिन्दुस्तानी", "राष्ट्रभाषा पर विचार-विमर्श", "शासन में नागरी", "शूद्रक साहित्य संदीपनी", "हिन्दी के हितैषी क्या करें", "हिन्दी की हिमायत क्यों", "हिन्दी-गद्य का निर्माण", "हिन्दुस्तानी से सावधान" इत्यादि।