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Balmukund Gupta
Hindi prosaist, essayist

Balmukund Gupta

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The details (from wikipedia)

Biography

बालमुकुन्द गुप्त (१४ नवंबर १८६५ - १८ सितंबर १९०७) हिन्दी के निबंधकार और पत्रकार थे।

जीवनी

बालमुकुन्द गुप्त का जन्म गुड़ियानी गाँव, जिला रिवाड़ी, हरियाणा में हुआ। उर्दू और फारसी की प्रारंभिक शिक्षा के बाद 1886 ई॰ में पंजाब विश्वविद्यालय से मिडिल परीक्षा प्राइवेट परीक्षार्थी के रूप में उत्तीर्ण की। विद्यार्थी जीवन से ही उर्दू पत्रों में लेख लिखने लगे। झझ्झर (जिला रोहतक) के ‘रिफाहे आम’ अखबार और मथुरा के ‘मथुरा समाचार’ उर्दू मासिकाओं में पं॰ दीनदयाल शर्मा के सहयोगी रहने के बाद 1886 ई॰ में चुनार के उर्दू अखबार ‘अखबारे चुनार’ के दो वर्ष संपादक रहे। 1888-1889 ई॰ में लाहौर के उर्दू पत्र ‘कोहेनूर’ का संपादन किया। उर्दू के नामी लेखकों में आपकी गणना होने लगी।

1889 ई॰ में महामना मालवीय जी के अनुरोध पर कालाकाँकर (अवध) के हिंदी दैनिक ‘हिंदोस्थान’ के सहकारी संपादक हुए जहाँ तीन वर्ष रहे। यहाँ पं॰ प्रतापनारायण मिश्र के संपर्क से हिंदी के पुराने साहित्य का अध्ययन किया और उन्हें अपना काव्यगुरू स्वीकार किया। सरकार के विरूद्ध लिखने पर वहाँ से हटा दिए गए। अपने घर गुड़ियानी में रहकर मुरादाबाद के ‘भारत प्रताप’ उर्दू मासिक का संपादन किया और कुछ हिंदी तथा बाँग्ला पुस्तकों का उर्दू में अनुवाद किया। अंग्रेजी का इसी बीच अध्ययन करते रहे। 1893 ई॰ में ‘हिंदी बंगवासी' के सहायक संपादक होकर कलकत्ता गए और छह वर्ष तक काम करके नीति संबंधी मतभेद के कारण इस्तीफा दे दिया। 1899 ई॰ में ‘भारतमित्र’ कलकत्ता के वे संपादक हुए।

१८ सितम्बर १९०७ को दिल्ली में लाला लक्ष्मीनारायण की धर्मशाला में गुप्तजी का देहान्त हुआ। उस समय वह बयालीस वर्ष के भी न हुए थे। यह उनकी अकाल-मृत्यु थी। हिन्दी-सेवा में उन्होंने अपना शरीर गला डाला था। वह भारतेन्दु और प्रतापनारायण मिश्र के सच्चे उत्तराधिकारी थे। उनके गद्य पर कहीं रोगशोक की छाया नहीं है। उसमें दासता के बन्धन तोड़ने को उठते हुए अभ्युदयशील राष्ट्र का आत्मविश्वास है। उनके गद्य में भारतेन्दु युग की वह जिन्दादिली है जो विपत्तियों पर हँसना चाहती थी, जिसके नीचे छिपी हुई व्यथा बहुतों की आंखों से ओझल रहती है।

उस युग में, जब देवनागरी को सरकारी नौकरियों के उम्मीदवार पूछते न थे, जब अंग्रेजी सरकार सन् सत्तावन से सबक सीखकर हिन्दी-भाषी जाति में हर तरह से विघटन के बीज बो रही थी, जब आधुनिक हिन्दी-साहित्य का आरम्भ हुए पच्चीस-तीस साल ही हुए थे, बालमुकुन्द गुप्त ने संसार की भाषाओं में हिन्दी का स्थान निर्दिष्ट करते हुए लिखा था-

अंग्रेज इस समय अंग्रेजी को संसार-व्यापी भाषा बना रहे हैं और सचमुच वह सारी पृथिवी की भाषा बनती जाती है। वह बने, उसकी बराबरी करने का हमारा मकदूर नहीं है, पर तो भी यदि हिन्दी को भारतवासी सारे भारत की भाषा बना सकें, तो अंग्रेजी के बाद दूसरा दर्जा पृथिवी पर इसी भाषा का होगा।"

आज पथिवी पर अंग्रेज़ी का उतना प्रसार नहीं है, जितना पचास साल पहले था। लेकिन जितना है, उतना प्रसार बनाये रखने में अंग्रेज़ी-प्रेमी भारतवासियों का हाथ सबसे ज्यादा है। संसार की पाँच सबसे ज्यादा बोली और समझी जानेवाली भाषाओं में हिन्दी का स्थान है। उसे संसार की भाषाओं में अपना सम्मानप्रद स्थान अवश्य मिलेगा, लेकिन तब जब भारत में पहले अंग्रेजी का प्रभुत्व समाप्त हो । इस प्रभुत्व को समाप्त करने के लिए जो भी संघर्ष करते हैं, उनके लिए बालमुकुन्द गुप्त का जीवन और साहित्य बहुत बड़ी प्रेरणा हैं।

गुप्तजी ने हर्बर्ट स्पेन्सर के बारे में लिखा था-

उसने कभी कोई उपाधि न ली, कभी राजा का दर्शन करने न गया, कभी धनी की सेवा न की और न किसी सभा का सभापति हुआ।

इन शब्दों में उन्होंने स्वयं अपने जीवन का आदर्श प्रस्तुत कर दिया है। उन्हें लोकगीतों से विशेष प्रेम था और उन्हीं की तर्ज पर उन्होंने तीखी राजनीतिक कविताएं लिखी थीं। कविता, इतिहास, आलोचना, व्याकरण, उन्होंने जो भी लिखा, उनकी निगाह हमेशा जनता पर रही।

गुप्तजी हिन्दी भाषा की प्रकृति को बहुत अच्छी तरह पहचानते थे। वह अनगढ़ भाषा के कट्टर शत्रु थे। 'अनस्थिरता' शब्द को लेकर उन्होंने महावीरप्रसाद द्विवेदी के विरुद्ध जो लेखमाला प्रकाशित की थी, उसका व्यंग्य और परिहास, तर्क में उनकी सूझबूझ, शब्द और व्याकरण की समस्याओं पर सरस वाक्य-रचना, सब कुछ अनूठा है । वाद-विवाद की कला के वह आचार्य हैं।

उनके वाक्यों में सहज बाँकपन रहता है। उपमान ढूंढ़ने में उन्हें श्रम नहीं करना पड़ता। व्यंग्यपूर्ण गद्य में उनके उपमान विरोधी पक्ष को परम हास्यास्पद बना देते हैं।

आपके हुक्म की तेजी तिब्बत के पहाड़ों की बरफ को पिघलाती है, फ़ारिस की खाड़ी का जल सुखाती है, काबुल के पहाड़ों को नर्म करती है।
समुद्र, अंग्रेजी राज्य का मल्लाह है, पहाड़ों की उपत्यकाएँ बैठने के लिए कुर्सी-मूढ़े। बिजली, कलें चलानेवाली दासी और हजारों मील खबर लेकर उड़ने वाली दूती।

अपने व्यंग्य-शरों से उन्होंने प्रतापी ब्रिटिश राज्य का आतंक छिन्न-भिन्न कर दिया। साम्राज्यवादियों के तर्कजाल की तमाम असंगतियाँ उन्होंने जनता के सामने प्रकट कर दीं। अपनी निर्भीकता से उन्होंने दूसरों में यह मनोबल उत्पन्न किया कि वे भी अंग्रेजी राज्य के विरुद्ध बोलें।

‘भारतमित्र’ में आपके प्रौढ़ संपादकीय जीवन का निखार हुआ। भाषा, साहित्य और राजनीति के सजग प्रहरी रहे। देशभक्ति की भावना इनमें सर्वोपरि थी। भाषा के प्रश्न पर सरस्वती पत्रिका के संपादक’, पं॰ महावीरप्रसाद द्विवेदी से इनकी नोंक-झोक, लार्ड कर्जन की शासन नीति की व्यंग्यपूर्ण और चुटीली आलोचनायुक्त ‘शिवशंभु के चिट्ठे’ और उर्दूवालों के हिंदी विरोध के प्रत्युत्तर में उर्दू बीबी के नाम चिट्ठी विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। लेखनशैली सरल, व्यंग्यपूर्ण, मुहावरेदार और हृदयग्राही होती थी। पैनी राजनीतिक सूझ और पत्रकार की निर्भीकता तथा तेजस्विता इनमें कूट कूटकर भरी थी।

पत्रकार होने के साथ ही वे एक सफल अनुवादक और कवि भी थे। अनूदित ग्रंथों में बाँग्ला उपन्यास मडेल भगिनी और हर्षकृत नाटिका रत्नावली उल्लेखनीय हैं। स्फुट कविता के रूप में आपकी कविताओं का संग्रह प्रकाशित हुआ था। इनके अतिरिक्त आपके निबंधों और लेखों के संग्रह हैं।

रचनाएँ

उनकी प्रमुख रचनाएँ हैं-

  • हरिदास,
  • खिलौना,
  • खेलतमाशा,
  • स्फुट कविता,
  • शिवशंभु का चिट्ठा,
  • सन्निपात चिकित्सा,
  • बालमुकुंद गुप्त निबंधावली।

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The contents of this page are sourced from Wikipedia article. The contents are available under the CC BY-SA 4.0 license.
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